अमीर खुशरो को हिंदवी का पहला शायर माना जाता है। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अफगानी पिता एवं भारतीय माता के पुत्र खुशरो एक सूफी कवि के रूप में जाने जाते हैं। भारतीय संगीत के विकास और खास कर भारत में सूफी संगीत के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कहा जाता है कि तबले का अविष्कार उन्होंने ही किया था।
सूफी संत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य खुशरो को गंगा जमुनी तहजीब के एक बड़े प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है। 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में जन्में खुशरो फारसी और हिंदी में समान रूप से दखल रखते थे। उनकी वे कविताएं तो लाजवाब हैं जिनमें उन्होंने एक छंद फारसी का रखा है तो दूसरा हिंदी का।
उन्हें मुकरियों का उस्ताद कहा जाता था। उनकी मुकरियों में रोजमर्रा के जीवन की झलकियां मिलती हैं। उनमें हास परिहास है तो मीठी आलोचना भी मिलती है।
खुशरो के बारे में एक किस्सा बड़ा मशहूर है कि एक बार वो एक कुएं पर पानी पीने गए। तो वहां पानी भर रहीं गाव वालियों ने कहा कि मिया खुशरो हम आपको पानी तभी पिलाएगी जब आप हमें खीर,चर्खा,कुत्ता और ढोल पर कविता सुनाएं। मिया खुशरो ने तत्काल यह मुकरी दे मारी।
खीर पकाया जतन से, चर्खा दिया चला
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा
आज खुशरो अपने सूफी काव्य और लोकप्रिय मुकरियों की वजह से याद किए जाते हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक पहलू यह भी है कि वह दरबारी कवि थे। बलबन के भतीजे मलिक छज्जू से लेकर वह अलाउद्दीन खिजली के दरबार में रहे। जहां उन्होंने दरबारी काव्य से लेकर अपने शरणदाताओं का इतिहास भी लिखा। बावजूद इसके खुशरो का वही काव्य अधिक महत्वपूर्ण है जो उन्होंने लोक के आलोक में लिखा। पेश है उनकी कुछ बेहद लोकप्रिय रचनाओं के कुछ अंश…….
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ
चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ
यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
……………….
ख़ुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.
………..
सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन,
पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन
सुंदर ब्लॉग। उम्मीद है आप इस पन्ने पर खुल कर अपनी बात रखेंगे। नारद में इसे रजिस्टर्ड करवाएं। शुक्रिया।
बहुत खूब लिखा है आपने, खुसरो की सूफ़ी कवितायें मन मोह लेती हैं ।
लीजिये मेरी कुछ पसंदीदा पंक्तियाँ खास आपके लिये,
खुसरो रैन सुहाग की, मैं जागी पी के संग,
तन मोरा मन पिया का, जो दोनों एक ही रंग ।
खुसरो दरिया प्रेम का, जो उलटी वाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार ।
खुसरो बाजी प्रेम की, मैं खेलूँ पी के संग,
जीत गयी तो पिया मोरे, हारी पी के संग ।
बढ़िया!
तो आप भी आवारगी करने आ पहुंचे हैं।
स्वागत है आवारा बंजारा की तरफ़ से फ़ुल आवारगी के साथ
पोस्ट को और विस्तार देना था .
मुझे खुसरो की वह मुकरियाँ चाहिए जिस में एक पंक्ति है
ना सखि मच्छर
यहि किसी और कवि की तो नहीं
कोई भेज सकता है क्या
अरविंद कुमार
samantarkosh@gmail.com