भारतीय कंपनियों की विदेशों में अपना विस्तार करने की भूख लगातार बढ़ती ही जा रही है और एशिया तथा अमरीका के बाद अब यूरोप इनके निशाने पर है।
भारतीय कंपनियों ने इस वर्ष जनवरी से अगस्त के बीच विदेशों में कंपनियां के अधिग्रहण एवं विलय के कुल 164 सौदे किये जिसके लिये उन्होंने लगभग 30.8 अरब डालर निवेश किया। इनमें से 16.3 अरब डालर निवेश से 55 सौदे केवल यूरोपीय कंपनियों से हुए।
विश्व की अग्रणी लेखा एवं सलाहकार फर्म ग्रांट थोर्नटन द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक भारतीय कंपनियों ने इस साल लगभग 45 प्रतिशत निवेश केवल ब्रिटेन में किया। इसमें 6.7 अरब पौड़ में टाटा स्टील के अपने से कई गुना बड़ी एंग्लो डच कंपनी कोरस का अधिग्रहण भी शामिल है।
भारतीय कंपनियों ने ब्रिटेन में 13.6 अरब डालर के निवेश से कुल 15 सौदे किये। यूरोप में भारतीय कंपनियों का दूसरा पसंदीदा देश जर्मनी रहा जहां इन्होंने दो अरब डालर खर्च करके पांच सौदे किये।
विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोपीय कंपनियों में भारतीय कंपनियों की बढ़ती रूचि का एक कारण यह है कि उन देशों की नीतियां इनके बेहद मुफीद पड़ती हैं। खासकर ब्रिटेन का प्रशासनिक एवं कानूनी ढांचा भारत जैसा ही है। दूसरे अंग्रेजी के कारण उन्हें भाषा संबंधी दिक्कतों का सामना भी नहीं करना पड़ता
भारत.पाल और भूटान के लिये यूरोपीय आयोग के प्रतिनिधिमंडल के पूर्व प्रमुख फ्रांसिस्को द कामारा गोम्स ने भी पिछले दिनों अपना कार्यकाल खत्म होने के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में स्वीकार किया कि यूरोप में इस तरह का माहौल बनाया गया है कि भारतीय कंपनियां वहां सहज महसूस कर सकें।
श्री गोम्स ने कहा कि टाटा कोरस और आर्सेलर मित्तल सौदे से यह बात साबित भी होती है। उनका मानना है कि भारत और यूरोप के बेहतर होते द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों का ही नतीजा है कि दोनों एक दूसरे के यहां निवेश कर रहे हैं।
यूरोप के बाद भारतीय कंपनियों ने लगभग 12 अरब डालर निवेश से 68 सौदे उत्तर अमरीका में किये। एशियाई देशों में इन कंपनियों ने लगभग 2.2 अरब डालर खर्च करके 31 सौदे किये। विश्व के अन्य हिस्सों में इस अवधि में 20 करोड़ डालर निवेश से 10 सौदे हुए।
टाटा स्टील ने इस वर्ष अप्रैल में ब्राजील की सीएसएन को पछाड़कर लगभग 12.2 अरब डालर ब्रिटेन की कोरस का अधिग्रहण कर लिया। यह इस वर्ष किसी भारतीय कंपनी का सबसे बड़ा सौदा था। यह भारतीयों कंपनियों द्वारा इस वर्ष विदेश में अधिग्रहण में खर्च किये गए धन का करीब 40 फीसदी है।
आदित्य बिरला समूह की एल्युमिनियम कंपनी हिंडाल्को का लगभग छह अरब डालर में इसी क्षेत्र की अमरीकी कंपनी नोवेलिस का अधिग्रहण दूसरा सबसे बड़ा सौदा रहा। ऊर्जा क्षेत्र की कंपनी सुजलान एनर्जी ने जर्मनी की आरई एनर्जी की 33.9 फीसदी हिस्सेदारी लेने में 1.7 अरब डालर निवेश किया जो भारतीय कंपनियों का तीसरा सबसे बड़ा सौदा रहा।
विजय माल्या की यूबी समूह ने इसी साल ब्रिटेन के स्काच ब्रैंड वाइट एंड मैके का लगभग एक अरब डालर में अधिहग्रण किया जो यूरोप में किसी भारतीय कंपनी का तीसरा सबसे बड़ा सौदा है।
पिछले साल भारतीय कंपनियों ने विदेशों में 8.6 अरब डालर के निवेश से अधिग्रहण एवं विलय के कुल 190 सौदे किये। इनमें से 3.6 अरब डालर के निवेश से 70 सौदे यूरोप में और 2.1 अरब डालर खर्च करके 71 सौदे उत्तर अमरीका में हुए।
विशेषज्ञों का मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था के बेहतरीन प्रदर्शन से भारतीय कंपनियों का न केवल आत्मविश्वास बढ़ा है बल्कि उनकी वित्तीय स्थिति भी मजबूत हुई है। प्रतिस्पर्धी ब्याज दरों पर भारतीय तथा अंतरराष्ट्रीय बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं से रिण की सहज उपलब्धता से भी इनका काम आसान हुआ।
विदेशों में सौदों के लिये स्टैंडर्ड चाटर्ड. आईसीआईसीआई बैंक.भारतीय स्टेट बैंक. आरबीएस. एचबीओएस. सिटी ग्रुप. एलाइड आईरिश बैंक.एबीएन एमरो और बीएनपी पारीबा जैसे बैंकों ने भारतीय बैंको को वित्तीय सहायता मुहैया करायी।
भारतीय कंपनियों में बैंको का विश्वास कितना बढ़ा है इसका अंदाजा भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष ओ.पी.भट्ट के हाल के इस खुलासे से लग सकता है कि उनके बैंक ने कोरस के अधिग्रहण के लिये टाटा को एक अरब डालर का रिण महज पांच मिनट में ही दे दिया था।
यूरोप में भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण और विलय का सिलसिला अभी थमने नहीं जा रहा है। टेटले चाय और कोरस के अधिग्रहण के बाद टाटा समूह की नजर ब्रिटेन के फोर्ड के मशहूर कार ब्रैंड लैंड रोवर और जगुआर के बड़े सौदे पर है। इसी तरह कई अन्य कंपनियां भी यूरोप में अधिग्रहण की कोिशश में हैं।
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